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    इंदिरा गांधी: आत्मसम्मान की राजनीति का स्वर्ण अध्याय

    News DeskBy News DeskNovember 25, 2025No Comments3 Mins Read
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    इंदिरा गांधी: आत्मसम्मान की राजनीति का स्वर्ण अध्याय

    राष्ट्र संवाद डेस्क

    अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में शक्ति संतुलन अक्सर सैन्य ताकतों और आर्थिक सामर्थ्य से तय होता है, लेकिन इतिहास में कुछ प्रसंग ऐसे भी दर्ज हैं, जहां व्यक्तित्व की दृढ़ता और आत्मसम्मान ने महाशक्तियों को भी झुकने पर मजबूर किया। 1971 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच व्हाइट हाउस में हुई मुलाक़ात इसी अदम्य आत्मविश्वास का ऐतिहासिक उदाहरण है।

    निक्सन का व्यवहार शुरुआत से ही शक्ति प्रदर्शन से भरा था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जानबूझकर 45 मिनट तक प्रतीक्षा कराना और फिर चेतावनी भरे लहजे में कहना कि “भारत ने अगर पाकिस्तान के मामले में दखल दिया, तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा” — यह उस दौर की महाशक्ति की अहंकारपूर्ण मानसिकता का परिचायक था।

     

    लेकिन इंदिरा का उत्तर इस देश की आत्मा से निकली आवाज़ था
    “भारत, अमेरिका को मित्र मानता है, मालिक नहीं। हम अपनी तकदीर खुद लिखते हैं।”

    यह वाक्य किसी फिल्मी संवाद की तरह नहीं, बल्कि एक संप्रभु राष्ट्र की गरिमा का उद्घोष था। इस क्षण का उल्लेख हेनरी किसिंजर ने अपनी मशहूर किताब “White House Years” में किया है, जिससे इस मुलाक़ात के महत्व का अंदाज़ लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं, बैठक के बाद निर्धारित संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस को रद्द कर इंदिरा का सीधे रवाना हो जाना भी विश्व मंच पर भारत की स्वतंत्र आवाज़ का सशक्त संकेत था।

    दिलचस्प यह भी है कि भारत लौटते ही इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी अटल बिहारी वाजपेयी को घर बुलाया। यह भारतीय लोकतंत्र की उस खूबसूरत परंपरा का उदाहरण है जहां राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होता है। और जब अटल जी को संयुक्त राष्ट्र में भारत का पक्ष रखने के लिए चुना गया, तो उनका जवाब भी उतना ही काव्यात्मक था—
    “बाग़ केवल गुलाब की खुशबू से नहीं महकता, उसमें लिली और चमेली की भी महक होती है। लेकिन जब बाग़ पर संकट आता है, तो सभी माली मिलकर उसकी रक्षा करते हैं।”

     

     

    यह प्रसंग भारत की राजनीतिक परिपक्वता का प्रतीक है, जहां विचारधाराएं भिन्न हो सकती हैं, पर राष्ट्रहित पर सभी एकजुट खड़े होते हैं।

    1971 का वह वर्ष सिर्फ युद्ध की विजय का नहीं, बल्कि स्वाभिमान की विजय का था। इंदिरा गांधी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत किसी भी वैश्विक शक्ति के लिए दबाव का क्षेत्र नहीं, बल्कि गरिमा और साहस से भरा राष्ट्र है।

    आज जब विश्व राजनीति फिर से अस्थिरता के दौर से गुजर रही है, इंदिरा गांधी के उस साहसिक अध्याय को याद करना आवश्यक है। यह हमें बताता है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर सम्मान की नींव बाहरी ताकतों पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मविश्वास और नेतृत्व के दृढ़ संकल्प पर टिकी होती है।

    लौह-स्त्री ने तब निक्सन को जवाब दिया था, और पूरी दुनिया ने देखा—
    सच्ची ताकत हथियारों की नहीं, आत्मसम्मान की होती है।

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