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    Home » बड़वा गांव की हवेलियों में इतिहास की गूंज: ठाकुरों की गढ़ी से केसर तालाब तक
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    बड़वा गांव की हवेलियों में इतिहास की गूंज: ठाकुरों की गढ़ी से केसर तालाब तक

    News DeskBy News DeskMay 24, 2025No Comments5 Mins Read
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    बड़वा गांव की हवेलियों में इतिहास की गूंज: ठाकुरों की गढ़ी से केसर तालाब तक
    ✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ

    दक्षिण-पश्चिम हरियाणा की रेतीली धरती पर, जहां धूप की तल्खी रेत के कणों को भी तपाने में सक्षम होती है, वहीं बसा है बड़वा — एक गांव जो आज भी अपने अतीत की स्मृतियों को हवेलियों की दीवारों, तालाबों की गहराई, और चित्रों की रंगरेखा में संजोए हुए है।

    यह गांव भिवानी जिले में, हिसार से 25 किलोमीटर दक्षिण में, राजगढ़-बीकानेर राजमार्ग पर स्थित है। इसकी पहचान सिर्फ एक सामान्य ग्रामीण बस्ती के रूप में नहीं, बल्कि एक जीवित संग्रहालय के रूप में है, जिसमें स्थापत्य, कला, संस्कृति और सामाजिक इतिहास के तमाम रंग समाए हैं।

    ठाकुरों की गढ़ी: बड़वा की आत्मा
    बड़वा का उल्लेख आते ही सबसे पहले जिस ऐतिहासिक संरचना का नाम आता है, वह है ठाकुरों की गढ़ी। यह गढ़ी गांव के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक रेतीले टीले पर बनी है, जिसे ब्रांसा भवन भी कहा जाता है। इसका निर्माण 1938 में किया गया था — उस समय जब मानसून ने धोखा दिया और गांव में अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। तब ठाकुर बाग सिंह तंवर ने इसे रोजगार के अवसर के रूप में देखा और अपने लोगों को निर्माण कार्य में जुटाया।

    गढ़ी का विशाल प्रवेशद्वार आज भी लोहे की मोटी प्लेटों और मजबूत लकड़ी से सुसज्जित है। अंदर प्रवेश करते ही लगता है जैसे हम किसी मध्यकालीन कथा में प्रवेश कर रहे हों। भंडारण के लिए बने कमरों की पंक्तियां, रहने योग्य विशाल हॉल, और हाथीखानों की व्यवस्था आज भी इसकी भव्यता की गवाही देती है।

    तंवरों की विरासत: राजस्थान से हरियाणा तक
    बड़वा गांव की नींव तंवर राजपूतों ने रखी थी, जो कि करीब 600 साल पहले राजस्थान के जीतपुरा से यहां आए थे। ठाकुर बृजभूषण सिंह, जो आज इस गढ़ी के उत्तराधिकारी हैं, के पूर्वजों ने यहां 14,000 बीघा भूमि पर अधिकार किया था और धीरे-धीरे इसे एक समृद्ध जागीर में परिवर्तित किया।

    मुगल काल में तंवरों ने संघर्ष के बजाय शांति और व्यापार को अपनाया, और भिवानी क्षेत्र में अपने लिए एक मजबूत सामाजिक और राजनीतिक स्थान निर्मित किया।

    गांव की हवेलियां: जहां दीवारें बोलती हैं
    बड़वा में लगभग एक दर्जन ऐतिहासिक हवेलियां हैं, जिनमें से सेठ परशुराम, सेठ हुकुमचंद लाला सोहनलाल और सेठ लक्ष्मीचंद की हवेलियां सबसे अधिक उल्लेखनीय हैं। इन हवेलियों की स्थापत्य शैली, चित्रांकन और दीवारों पर बनी धार्मिक व सांस्कृतिक छवियां राजस्थान की कोटा और किशनगढ़ शैलियों की याद दिलाती हैं।

    सेठ परशुराम की हवेली: इनकी हवेली को पिलानी से लाए गए कारीगरों ने सजाया। हवेली के हर कोने में बारीकी से उकेरे गए चित्र हैं, जो कृष्ण-राधा की रासलीला, राजा-रानी के प्रेम संवाद और धार्मिक कथाओं को दर्शाते हैं।

    सेठ हुकुमचंद की हवेली: मुख्य द्वार पर सजे हाथी की आकृति, जिसके ऊपर राजा-रानी विराजमान हैं, दर्शाता है कि कैसे शाही जीवन को इन चित्रों में जीवंत किया गया। दीवारों पर विष्णु लक्ष्मी, शेरावाली माता के चित्र तथा कोटा शैली में बने राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग दिखाई देते हैं।

    लक्ष्मीचंद का कटहरा: इस स्थान पर छतों पर रथयात्राएं, सेविकाएं, और सुरक्षा में चलते सैनिकों के चित्र मिलते हैं। एक दृश्य में श्रीकृष्ण राधा की चोटी गूंथते हुए नजर आते हैं — यह चित्रण उस काल की पारिवारिक निकटता, सौंदर्यबोध और प्रेमाभिव्यक्ति की गहराई को दर्शाता है।

    केसर तालाब और ‘मुक्तिधाम’
    बड़वा गांव की पहचान केसर तालाब से भी जुड़ी है, जो सेठ परशुराम ने अपनी बहन केसर की स्मृति में बनवाया था। कथा कहती है कि जब गांव की स्त्रियां गोबर चुनती थीं, तो यह कार्य उच्च जातियों और सम्पन्न परिवारों के लिए अपमानजनक माना जाता था। बहन को अपमान से बचाने हेतु सेठ ने वहां एक विशाल पक्का तालाब बनवाया, जिसका नाम केसर तालाब पड़ा।

    इस तालाब के पास एक गहरा कुंड है, जिसे मुक्तिधाम कहा जाता है, क्योंकि दुःखी महिलाएं यहां आत्महत्या के लिए कूदी थीं। इसके किनारे बनी छतरियों की दीवारों पर राधा-कृष्ण की रासलीला के चित्र बने हैं, जिनमें ढोलक, नगाड़े, बांसुरी, हारमोनियम जैसे वाद्ययंत्रों के चित्र भी हैं।

    इन चित्रों में लाल, पीले और नीले रंगों का प्रयोग हुआ है। श्रीकृष्ण को नीले और राधा को गोरे रंग में चित्रित किया गया है। पशु-पक्षियों की आकृतियां — मोर, तोता, चिड़ियाँ — भी इसमें देखी जा सकती हैं।

    फिल्मों का गांव: ‘चंद्रावल’ और ‘बैरी’ की धरती
    बड़वा की सांस्कृतिक समृद्धि इतनी प्राचीन और प्रभावशाली रही है कि हरियाणवी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। प्रसिद्ध फिल्म चंद्रावल और बैरी के कुछ दृश्य इसी गांव के रूसहड़ा जोहड़ और कुओं के पास फिल्माए गए। आज भी वे पनघट, जिन पर ‘चंद्रो’ पानी भरने आती थी, गांववालों की स्मृति और गर्व का विषय हैं।

    अतीत की गोद में वर्तमान की पहचान
    बड़वा सिर्फ एक गांव नहीं, बल्कि हरियाणा के ग्रामीण गौरव की जीवित मिसाल है। इसकी हवेलियां, चित्रकला, तालाब, धार्मिक धरोहरें और सामाजिक कथाएं — सब मिलकर इसे एक विरासत स्थल बनाती हैं।

    आज जब विकास की अंधी दौड़ में गांवों का सांस्कृतिक चरित्र खोता जा रहा है, बड़वा जैसे गांव यह सिखाते हैं कि यदि हम अपने अतीत को संजो कर रखें, तो वह न केवल हमारी पहचान को मजबूत करता है बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनता है।

    (लेखक डॉ. सत्यवान सौरभ, इतिहास और संस्कृति विषयों पर लिखने वाले स्वतंत्र स्तंभकार हैं। यह लेख उनके बड़वा गांव के दौरे और स्थानीय शोध पर आधारित है।)

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