स्मृति शेष डॉ नरेंद्र कोहली के लिए डॉ रागिनी भूषण की तरफ से शब्दांजलि
“हो गई राम जी की इच्छा”पूरी,ख़ुश। आपकी तो अपनी कोई इच्छा ही नहीं थी,उन्हीं की इच्छा आपकी इच्छा।पर समाज जिसमें आप रहते हैं अभी भी सूक्ष्म रूप से ,उससमाज से पूछी आपने उसकी इच्छा? नहीं ना,तो सुनिये,ये समाज आपका समाज चाहता था कि अभी आप रहें सशरीर रहें, नरेन्द्र कोहिली होके। जितनी बार फोन पर बात हुई उतनी बार कहा” मत निकलिए बाहर”
तब क्यों गये उद्घाटन करने भवन का?अॉन लाइन भी तो हो सकता था ,पर नहीं अब भी तो यही कहेंगे “राम जी की इच्छा “थी।
उस समाज के बारे एक बार नहीं सोचा कि मेरे बाद क्या होगा इसका।अब चारों तरफ सर्पदंश को सहकर भी चन्दन कौन बनेगा?एक बार नहीं सोचा कौन सा नीलकंठ अब सुधा बरसायेगा
अक्षर अक्षर कौन करेगा अनहद नाद,कौन मिलवायेगा विवेकानन्द से और कौन वासुदेव नीति स्वरों की सरगम बांधेगा अपनी वंशी में। अध्यात्म का पावन सौरभ भर देगा सांसों में और उकेरेगा त्रासदी अपनी ही तूलिका से।कौन मर्यादा में रहने को चेतायेगाऔर कौन फिर घर घर के महाभारत को निपटायेगा।कौन गुरु के चरणों में प्रणाम चढ़ायेगा और कौन मेरी जैसी अबोध अज्ञानी बहन को दुलार के उपहार में देगा जीवन का मर्म? बोलिए भैया बोलिए, कुछ तो बोलिए ,यूं मौन क्यूं हो गये।आप तो इसी ज़मीन पर खड़े खड़े विस्तृत आकाश छूते थे, यही हमारे साथ बैठे बैठे स्वर्ग की दिव्यता उतार लाते और हम विस्तारित आंखों से स्तम्भित कुछ अचेत आनन्दस्रोत में डूबे समाधिस्थ से रहते।आपकी सृजित मोहिनी दृष्टि में वो आंजती कि हृदय गंगा बहने लगती और भावनायें दीपदान करती ।इस लोक में अलौकिक सृष्टि के प्रणेता आपने ये कैसा गीत गाया कि हर तरफ शून्य बस शून्य दिखने लगा।
याद है मुझे वो ९३का पूर्वाह् आपके गृहमन्दिर १७५वैशाली में गई थी अपने प्रभु भैया की चरण रज को अपने शीष चढ़ाने,किन्तु हुआ बिल्कुल विपरीत,मेरे प्रभु मुझे ही आसन पर विराजित कर स्वयं फ्रिज से तरबूज निकाल कर अपने हाथों से काट कर परोस रहे थे।नि: शब्द थी,क्या कहती, पहले ही कुछ नहीं कहने के आदेश फूलों से आराधित थी,एक तो मुंहबोले भैया ऊपर से जमशेदपुर की मुहर टंकी थी मुझ पर।सच कहूं उस समय गर्व भी हो रहा था अपने पर पर नीचे धंसी भी जा रही थी “कहां राजा भोज कहां गंगू तेली।”पर आपका वत्सल सानिध्य मेरी धरोहर हो गया।
दोबारा फिर वैशाली के मन्दिर में गई ,यूं कहूं जाने का परम सौभाग्य मिला।इस बार आपके गुरु परम आदरणीय मेजर सी बी सिन्हा के साथ । हमारे पहुंचने के कुछ क्षण पूर्व ही” तोड़ो कारा तोड़ो की”पहली प्रति आई थी,और आपने तत्काल वह अपने गुरु जी को समर्पित कर दी थी। मुझे भी एक पुस्तक दी”क्षमा करना जिज्जी”। मैं इस पुस्तक की कोख को जानती थी इसलिए एक ही बैठक में पढ़ गई ।याद है न भैया आपको,जिस दिन मैं विवाह के बाद पहली बार अपनी बेटी को कलकत्ता के एयरपोर्ट पर अमेरिका के लिए छोड़ कर लौटी थी,उस दिन गुरुदेव सीबी सर के यहां ही भोजन पर आमंत्रित थे हम सब, मुझे उदास देखकर आप कहानियों से मुझे बहलाते रहे।अगले दिन आपने, मेरे घर भोजन
कर मुझे कृत कृत्य किया। भैया आपसे बातों ही बातों में कितना अमृत अपने हृदय की अंजलि में बटोर लेते थे हम,कह नहीं
सकते। अक्षर कुंभ में आपका साहचर्य तीर्थ हो जाता था। हमारी पुस्तक “गीत यात्रा, पिता से पुत्री तक”की जो भूमिका आपने लिखी अनुकरणीय है। आपने कभी मेरी बात नहीं टाली अभी २०१७की तो बात है “आपातकाल की व्यथा कथा”सम्पन्न कर पूज्य पिताजी भी महाप्रयाण पर निकल गये।आप अस्वस्थ थे फिर भी आपने उस पर अपने विचारों को लिखित अभिव्यक्ति दी।
भैया जमशेदपुर आपका आना महोत्सव का रागरंग रचता था।
आपके आने की ख़बर से उच्छल तरंगें उमड़ने लगती थी हृदयसरों में। आपकी वाग्धारा में राम प्रतिबिंबित रहते थे।वैसे लब्ध प्रतिष्ठित महामानवों से वार्ता करने में मुझे बहुत संकोच होता है ,कहीं न कहीं अहं की गंध आती है वहां से।पर भैया आपसे तो मैं कुछ भी बेझिझक पूछ भी लेती थी और निर्भीकता से खुलकर अपना मत रखती भी थी,ये अलग बात कि आप मुझे संशोधित भी करते थे और वह संशोधन मैं सविनय शिरोधार्य भी कर लेती।
कितने कितने कार्यक्रम हुए कितना कितना आपको सुना, आपकी सहजता आपके अतिरिक्त कहीं नहीं मिली। साहित्य का मूर्धन्य इतना सरल और सहज कैसे हो सकता ,आपके सन्दर्भ में यह भी शोध का ही विषय है भैया।और उसदिन तौ मैं भौचक्की ही रह गई जब आपने कहा कि “नरेंद्र कोहिली नहीं लिखता, कोई और दिव्यता मेरी लेखनी पकड़ती है,जब लिखता हूं तो नरेन्द्र नहीं होता”ये आत्मस्वीकृति और अपनी साधना की दिव्यता को अपने राम के सुपुर्द करने कीआत्मवैदूर्य की जगमग में नहा ली थी मैं भैया।कुछ दिन पूर्व ही तो भास्करभैया का फोन आया था,”बहना ‘मेरे रोल मॉडल नरेन्द्र कोहिली’पुस्तक छप कर आ गई है,पर नरेंद्र सन्तुष्ट नहीं है छपाई से, उन्होंने प्रकाशक को फिर से छापने के लिए कहा है, किन्तु साथ में यह भी कहा है कि मैं तब तक इनमें से एक पुस्तक जूही को और एक तुमको देदूं”पुस्तक मैं ले आई, मेरे लिए आपका भास्कर भैया को देने के लिए कहना यानी अपनी छुटकी बहन को अपने दुलार से नवाजना। धन्य हूं मैं ऐसे अप्रतिम अग्रजों के वात्सल्य के तीर्थजलों से अभिषिक्त होकर।
भैया, क्या अपराध हमसे हो गया कि यूं रूठगये। देखिए ना सब कुछ वैसा ही है बस आप तैयार हो जाइए।आप जो कहेंगे ,हम करेंगे,बस,बस आप बोलिये, ।एक अरसा हो गया जमशेदपुर आये,कहिये न कब आ रहे हैं यहां और कहां से पिक कर लें आपको, भैया। प्रतीक्षा की आरती लिए खड़े हैं ।
रागिनी