देवानंद सिंह
संसद में चल रही तीखी बहस के बीच मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) को लेकर उठे सवाल केवल एक सरकारी योजना तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह बहस भारत के लोकतांत्रिक, संवैधानिक और सामाजिक ढांचे के मूल विचारों को चुनौती देती है। मनरेगा को खत्म करने या उसके स्वरूप में बुनियादी बदलाव की अटकलों ने देश भर के सामाजिक कार्यकर्ताओं, अर्थशास्त्रियों और नीति विशेषज्ञों को गहरी चिंता में डाल दिया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, यदि यह कानून कमजोर किया गया या इसे सीमित कर दिया गया, तो इसका अर्थ होगा ‘काम के अधिकार’ की अवधारणा को ही धीरे-धीरे समाप्त करना।
मनरेगा केवल एक रोजगार योजना नहीं है, बल्कि यह भारत में अधिकार-आधारित कल्याणकारी नीतियों की रीढ़ रहा है। यह कानून ग्रामीण नागरिकों को साल में न्यूनतम 100 दिन का मजदूरी आधारित रोजगार सुनिश्चित करता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसमें काम की मांग व्यक्ति करता है और सरकार की यह कानूनी जिम्मेदारी होती है कि वह रोजगार उपलब्ध कराए। यदि, रोजगार नहीं दिया गया, तो बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है। यही वह तत्व है जो मनरेगा को बाकी कल्याणकारी योजनाओं से अलग बनाता है।
हालिया बहस की जड़ में सरकार द्वारा प्रस्तावित एक नया कानून या ढांचा है, जिसमें यह अधिकार सरकार अपने हाथ में रखना चाहती है कि मनरेगा जैसी योजना कहां लागू होगी और कहां नहीं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, यह सोच मूल कानून की आत्मा के बिल्कुल विपरीत है। मनरेगा की कल्पना इस आधार पर की गई थी कि यह पूरे देश में समान रूप से लागू होगा और काम की जरूरत वाले लोग स्वयं तय करेंगे कि वे इसमें शामिल होना चाहते हैं या नहीं।
विशेषज्ञों का तर्क है कि यदि, सरकार यह तय करने लगे कि किन क्षेत्रों में योजना लागू होगी, तो यह चयनात्मक कल्याण की ओर लौटने जैसा होगा। भारत पहले ही ‘बीपीएल’ (गरीबी रेखा से नीचे) जैसी पहचान-आधारित योजनाओं की समस्याओं को देख चुका है, जहां वास्तविक गरीब अक्सर बाहर रह जाते हैं और अपात्र लोग लाभ उठा लेते हैं। मनरेगा ने इस समस्या को इसलिए हल किया, क्योंकि इसमें कोई पहचान प्रमाणन नहीं, बल्कि केवल काम की इच्छा ही पात्रता का आधार है। एक और गंभीर चिंता यह है कि नए प्रस्ताव के तहत राज्यों पर योजना के खर्च का लगभग 40 प्रतिशत बोझ डालने की बात कही जा रही है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, यह मनरेगा को औपचारिक रूप से खत्म किए बिना उसे व्यावहारिक रूप से निष्क्रिय करने का तरीका हो सकता है।
भारत के अधिकांश राज्य पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस, बुनियादी ढांचे और कर्ज भुगतान जैसी जिम्मेदारियों के बीच यदि मनरेगा का बड़ा खर्च राज्यों पर डाल दिया गया, तो वे स्वाभाविक रूप से इस योजना को लागू करने में हिचकिचाएंगे। परिणामस्वरूप, कई राज्य या तो काम के दिन घटा देंगे, मजदूरी भुगतान में देरी करेंगे या योजना को ही प्राथमिकता सूची से बाहर कर देंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि मनरेगा इसलिए सफल रहा क्योंकि यह केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित और कानूनी रूप से बाध्यकारी योजना थी। केंद्र पर जिम्मेदारी होने से यह सुनिश्चित हुआ कि देश के सबसे कमजोर वर्ग को रोजगार का न्यूनतम सुरक्षा कवच मिले, चाहे राज्य सरकार की मंशा या क्षमता कुछ भी हो।
इतिहास गवाह है कि जब-जब देश आर्थिक या सामाजिक संकट से गुजरा है, मनरेगा ने ग्रामीण गरीबों के लिए जीवनरेखा का काम किया है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान जब निजी क्षेत्र में रोजगार घट रहे थे, तब मनरेगा ने लाखों ग्रामीण परिवारों को न्यूनतम आय सुनिश्चित की। इसी तरह, कोरोना महामारी के दौरान जब अचानक लॉकडाउन लगा और शहरों से लाखों प्रवासी मजदूर गांव लौटे, तब मनरेगा ही वह एकमात्र तंत्र था, जिसने उन्हें तुरंत काम और आय का सहारा दिया। यह योजना किसी जटिल पात्रता प्रक्रिया की मोहताज नहीं थी, इसलिए संकट के समय इसका विस्तार तेजी से संभव हुआ।
विशेषज्ञों का तर्क है कि सरकारें अक्सर आपात स्थितियों में नई योजनाएं बनाने में समय गंवा देती हैं, जबकि मनरेगा जैसी व्यवस्था पहले से मौजूद होने के कारण तत्काल प्रतिक्रिया देने में सक्षम रहती है। यह इसे केवल सामाजिक सुरक्षा नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संकट प्रबंधन का उपकरण भी बनाती है। मनरेगा को लेकर चिंता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि संवैधानिक भी है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, यह कानून भारत के संविधान में निहित सामाजिक न्याय और गरिमा के अधिकार का व्यावहारिक रूप है। काम का अधिकार सीधे-सीधे संविधान में भले न लिखा हो, लेकिन जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) की व्याख्या में आजीविका का अधिकार शामिल किया जा चुका है।
मनरेगा ने इस विचार को जमीन पर उतारा कि राज्य अपने नागरिकों को केवल सब्सिडी या दान नहीं देगा, बल्कि उन्हें सम्मानजनक काम का अवसर देगा। यही कारण है कि इसे ‘भीख नहीं, अधिकार’ कहा गया। यदि, इस कानून को कमजोर किया गया, तो यह संदेश जाएगा कि राज्य धीरे-धीरे अधिकार-आधारित शासन से हटकर दया-आधारित शासन की ओर लौट रहा है। नागरिक समाज के संगठनों और एक्टिविस्ट समूहों ने इस प्रस्ताव को केवल नीति परिवर्तन नहीं, बल्कि दशकों की लोकतांत्रिक लड़ाई पर हमला बताया है। उनके अनुसार, मनरेगा उस दौर का परिणाम है जब जनता, सामाजिक संगठनों और नीति विशेषज्ञों ने मिलकर यह मांग रखी थी कि गरीबी से लड़ाई केवल आर्थिक वृद्धि से नहीं, बल्कि रोजगार की गारंटी से लड़ी जानी चाहिए। विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून को कमजोर करना उन लाखों ग्रामीण परिवारों की आवाज को कमजोर करना है, जिनके लिए मनरेगा अंतिम सहारा है। यह केवल मजदूरी का सवाल नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक स्थिरता का भी मुद्दा है। मनरेगा के तहत काम करने वालों में बड़ी संख्या महिलाओं की रही है, जिसने उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान दिया।
कुल मिलाकर, मनरेगा पर चल रही बहस दरअसल इस प्रश्न का उत्तर खोज रही है कि भारत किस तरह का कल्याणकारी राज्य बनना चाहता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, यदि सरकारें अधिकार-आधारित योजनाओं को बोझ मानने लगें और उन्हें सीमित करने का रास्ता अपनाएं, तो इससे सामाजिक असमानता और असुरक्षा बढ़ेगी। मनरेगा को खत्म करना या उसे कमजोर करना आसान हो सकता है, लेकिन इसके परिणाम दूरगामी और खतरनाक होंगे। यह न केवल ग्रामीण गरीबों को संकट में डालेगा, बल्कि लोकतंत्र में नागरिकों के विश्वास को भी कमजोर करेगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार इस योजना को ‘समस्या’ नहीं, बल्कि ‘समाधान’ के रूप में देखे। अंततः, मनरेगा केवल रोजगार योजना नहीं है—यह भारत के उस विचार का प्रतीक है, जिसमें हर नागरिक को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। यदि, यह अधिकार कमजोर पड़ा, तो यह केवल एक कानून का अंत नहीं होगा, बल्कि सामाजिक न्याय की उस सोच का भी क्षरण होगा, जिस पर आधुनिक भारत की नींव रखी गई थी।


