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    क्या राहुल-प्रियंका की जोड़ी बिहार में बदल पाएगी सियासी समीकरण?

    News DeskBy News DeskOctober 29, 2025No Comments8 Mins Read
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    क्या राहुल-प्रियंका की जोड़ी बिहार में बदल पाएगी सियासी समीकरण?
    देवानंद सिंह
    बिहार की राजनीति में फिर से हलचल है। इस बार दिलचस्पी सिर्फ इस बात में नहीं है कि कौन सी पार्टी सत्ता में आएगी, बल्कि इस बात में भी है कि क्या कांग्रेस अपने पुराने जनाधार को पुनर्जीवित कर पाएगी या नहीं। राहुल गांधी 29 अक्टूबर से बिहार के चुनावी रण में उतरने वाले हैं। यह सिर्फ एक रैली नहीं होगी, बल्कि कांग्रेस के लिए नए संकल्प की शुरुआत मानी जा रही है। पार्टी की योजना के अनुसार राहुल गांधी कुल 12 रैलियां करेंगे और प्रियंका गांधी भी लगभग 10 सभाओं के साथ अभियान को धार देंगी, यानी कांग्रेस इस बार किसी प्रतीकात्मक उपस्थिति से आगे बढ़कर गंभीर चुनौती देने के मूड में है।

     

     

    यह चुनावी दौड़ शुरू होगी ठीक एक दिन पहले, जब 28 अक्टूबर को महागठबंधन अपना घोषणापत्र जारी करेगा। दिलचस्प यह है कि राहुल गांधी की पहली सभा उसी के अगले दिन रखी गई है, जिससे कांग्रेस यह संदेश देना चाहती है कि घोषणापत्र सिर्फ कागज नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संकल्प है, जिसे मैदान में उतरकर वे खुद जनता तक पहुंचाएंगे। महागठबंधन में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद), और वामपंथी दल शामिल हैं। परंपरागत रूप से इसमें कांग्रेस की भूमिका ‘जूनियर पार्टनर’ की रही है, लेकिन इस बार पार्टी अपनी हिस्सेदारी और उपस्थिति, दोनों को लेकर पहले से कहीं ज्यादा मुखर है। पार्टी ने पहले चरण के प्रचार के लिए 40 स्टार प्रचारकों की सूची जारी की है। इसमें मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, केसी वेणुगोपाल, भूपेश बघेल, अजय माकन जैसे दिग्गज नेता शामिल हैं। यानी कांग्रेस ने इस बार सिर्फ एक परिवार पर निर्भर रहने की गलती नहीं दोहराई है, बल्कि संगठन के सभी प्रमुख चेहरों को मैदान में उतारकर यह दिखाने की कोशिश की है कि यह ‘कलेक्टिव कैंपेन’ होगा।

     

     

    हालांकि, यह सब कुछ उतना आसान नहीं है, जितना दिखता है। टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी में उठे असंतोष ने शुरूआती दिनों में ही चुनौती पैदा कर दी थी। कई स्थानीय नेताओं ने आरोप लगाया कि टिकट वितरण में मनमानी हुई, कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की गई और स्थानीय समीकरणों की अनदेखी की गई। इस नाराजगी को शांत करने के लिए खुद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को हस्तक्षेप करना पड़ा। अशोक गहलोत, केसी वेणुगोपाल और अजय माकन पटना पहुंचे और लगातार बैठकों में पार्टी की स्थिति का जायजा लिया। कांग्रेस का उद्देश्य अब यह सुनिश्चित करना है कि छठ पूजा के बाद जब राहुल और प्रियंका बिहार में सभाओं की श्रृंखला शुरू करें, तो संगठन पूरी तरह एकजुट नजर आए। पार्टी नहीं चाहती कि जनता के सामने अंतर्कलह की छवि उभरे, इसलिए राहुल गांधी के दौरे से पहले सभी जिलों में समन्वय बैठकों, कार्यकर्ता सम्मेलन और प्रचार रणनीति की समीक्षा की जा रही है।

     

     

    राहुल गांधी की बिहार यात्रा का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि यह उनकी हाल की वोटर अधिकार यात्रा का स्वाभाविक विस्तार है। वह यात्रा 110 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरी थी और कांग्रेस को गांव-गांव तक पहुंचाने का प्रयास माना गया था। अब पार्टी उसी जनसंपर्क मोमेंटम को चुनावी ऊर्जा में बदलने की रणनीति पर काम कर रही है। यानी कांग्रेस की कोशिश है कि जो नैरेटिव वोटर जागरूकता के नाम पर बना, वही चुनावी समर्थन में तब्दील हो, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या राहुल और प्रियंका की संयुक्त रैलियां बिहार के जमीनी समीकरणों को हिला पाएंगी? बिहार की राजनीति जातीय, सामाजिक और गठबंधन की गणनाओं पर आधारित है। यहां केवल करिश्माई भाषणों या परिवारवाद की अपील से मतदाता प्रभावित नहीं होते। उन्हें ठोस स्थानीय मुद्दे चाहिए। रोजगार, पलायन, शिक्षा, कानून-व्यवस्था और गरीबी जैसे विषय। कांग्रेस अगर इन मुद्दों पर ठोस वादों के साथ सामने आती है, तो कुछ हद तक वह अपनी खोई हुई जमीन वापस पा सकती है।

     

     

    महागठबंधन का घोषणापत्र इस लिहाज से अहम होगा। माना जा रहा है कि इसमें युवाओं के लिए रोजगार गारंटी, किसान कर्ज माफी, और शिक्षा पर विशेष फंड जैसे वादे शामिल होंगे। राहुल गांधी की सभाओं में इन्हीं मुद्दों को प्रमुखता से उठाने की तैयारी है। वहीं प्रियंका गांधी की सभाओं को महिला केंद्रित बनाया जा रहा है, जिसमें महिलाओं की सुरक्षा, स्व-सहायता समूहों का सशक्तिकरण और शिक्षा के अवसर जैसे विषय हावी रहेंगे।

    कांग्रेस के लिए यह चुनाव सिर्फ बिहार की 243 सीटों का सवाल नहीं है। यह उसके राष्ट्रीय पुनरुत्थान की रणनीति का हिस्सा है। 2024 के लोकसभा चुनावों में बिहार से कांग्रेस का प्रदर्शन कमजोर रहा था। पर इस बार पार्टी का फोकस है कि वह राजद की छाया से निकलकर खुद को स्वतंत्र राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित करे। इसके लिए राहुल गांधी का अभियान साझी जिम्मेदारी की बजाय साझा नेतृत्व का संदेश देने की कोशिश करेगा।कांग्रेस की अंदरूनी चुनौतियां भी कम नहीं हैं। संगठनात्मक ढांचे में कई जगह पुराने और नए नेताओं के बीच खींचतान है। स्थानीय स्तर पर राजद के प्रभुत्व के कारण कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अक्सर सहयोगी से ज्यादा आश्रित समझा जाता है। राहुल गांधी का अभियान इस धारणा को तोड़ने की कोशिश करेगा कि कांग्रेस महागठबंधन में सिर्फ संख्या पूर्ति करने वाला घटक है।

     

     

    इसके विपरीत भाजपा ने पहले ही अपना प्रचार अभियान आक्रामक तरीके से शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई सभाएं प्रस्तावित हैं, और भाजपा ने डबल इंजन की सरकार बनाम अराजक गठबंधन का नैरेटिव जोर-शोर से चलाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस के सामने चुनौती यह है कि वह इस नैरेटिव को तोड़ने के लिए वैकल्पिक एजेंडा प्रस्तुत करे। राहुल गांधी अगर अपने भाषणों में केवल मोदी सरकार की आलोचना तक सीमित रहे तो असर सीमित रहेगा, पर अगर वह वैकल्पिक दृष्टि यानी बिहार के विकास का रोडमैप पेश कर पाए, तो वह चुनावी विमर्श को मोड़ सकते हैं। एक और दिलचस्प पहलू यह है कि प्रियंका गांधी इस बार राहुल के साथ तालमेल में रैलियों की रणनीति बना रही हैं। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस नेतृत्व के बीच यह समन्वय राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हुआ है। प्रियंका की शैली अधिक भावनात्मक और संवादात्मक होती है, जबकि राहुल गांधी का जोर नीति और वैचारिक मुद्दों पर रहता है। अगर दोनों का यह संयोजन सफल रहा, तो बिहार में कांग्रेस के लिए यह डबल इंजन प्रभावी साबित हो सकता है।

     

     

    संगठन की दृष्टि से भी कांग्रेस ने कुछ नए प्रयोग किए हैं। इस बार प्रचार अभियान को डिजिटल और ग्राउंड दोनों स्तरों पर जोड़ने का प्रयास किया गया है। बदलता बिहार, बोलता युवा नामक सोशल मीडिया कैंपेन लॉन्च किया गया है, जिसके जरिए पार्टी युवाओं से संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रही है। साथ ही, हर जिले में युवा संवाद और महिला चौपाल कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। ये प्रयास कांग्रेस को पारंपरिक भीड़-सभाओं से आगे ले जाकर वास्तविक जनसंपर्क में परिवर्तित कर सकते हैं। फिर भी, यह मानना गलत होगा कि सिर्फ रैलियों से कांग्रेस को तुरंत लाभ मिलेगा। बिहार में राजनीतिक स्मृति लंबी है। मतदाता अब केवल भाषणों से नहीं, बल्कि ठोस भरोसे से प्रभावित होते हैं। कांग्रेस को यह समझना होगा कि पिछले तीन दशकों में उसने बिहार में जो संगठनात्मक कमजोरी दिखाई, उसे एक अभियान से भरना संभव नहीं है। इसके लिए दीर्घकालिक जमीनी नेटवर्क और स्थानीय नेतृत्व को मजबूत करना जरूरी है।
    महागठबंधन में उसकी भूमिका भी इसी पर निर्भर करेगी कि वह कितनी सीटों पर असरदार प्रदर्शन करती है। अगर कांग्रेस इस चुनाव में 25–30 सीटों का आंकड़ा पार कर पाती है, तो वह राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर आत्मविश्वास के साथ उभर सकती है, लेकिन अगर उसका प्रदर्शन 2020 की तरह सीमित रहा, तो यह सवाल फिर उठेगा कि क्या कांग्रेस अब भी अपने बलबूते राजनीति कर सकती है या नहीं।

    राहुल गांधी की बिहार सभाओं से एक और संदेश निकलने की उम्मीद है कि कांग्रेस अब हार को नियति नहीं, चुनौती मान रही है। राहुल ने कई बार कहा है कि उन्हें जनसंवाद में भरोसा है, और बिहार जैसे राज्य में यह रणनीति असरदार भी हो सकती है, क्योंकि यहां राजनीति अभी भी जनसंपर्क और सीधी बातचीत पर टिकी हुई है। अगर कांग्रेस इस विश्वास को जमीन पर उतार सके, तो वह कम से कम अपना खोया आत्मविश्वास जरूर वापस पा सकती है। प्रियंका गांधी के शामिल होने से प्रचार को भावनात्मक गहराई मिलेगी। वह महिलाओं, किसानों और नौजवानों के मुद्दों पर बात करेंगी, और उनके भाषणों की भाषा अपेक्षाकृत सरल और भावनात्मक होगी, जिससे ग्रामीण वोटरों तक सीधा संवाद संभव है। बिहार की राजनीति में यह पहलू अक्सर निर्णायक साबित होता है, क्योंकि यहां भावनात्मक अपील और सामाजिक जुड़ाव का वजन सिर्फ वादों से ज्यादा होता है।

    कुल मिलाकर, बिहार चुनाव 2025 कांग्रेस के लिए अस्तित्व की परीक्षा है। यह सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि राजनीतिक पहचान की जंग है। राहुल गांधी की 12 रैलियां और प्रियंका गांधी की 10 सभाएं इस बात की परीक्षा होंगी कि क्या कांग्रेस में अभी भी जनता से संवाद की वह क्षमता बची है, जिसने कभी उसे पूरे देश की राजनीति का केंद्र बनाया था। अगर, कांग्रेस महागठबंधन के भीतर अपनी उपस्थिति को मजबूत कर पाई और जनसंपर्क की दिशा में सच्चे अर्थों में मेहनत की, तो यह चुनाव उसके लिए पुनरुत्थान की शुरुआत बन सकता है, लेकिन अगर वह केवल भाषणों, वादों और परिवार की करिश्माई अपील पर निर्भर रही, तो बिहार की राजनीति उसे फिर किनारे कर देगी। इसलिए, राहुल और प्रियंका की रैलियों के साथ-साथ जो चीज सबसे जरूरी है, वह है कांग्रेस का स्थानीयकरण यानी बिहार की धरती की भाषा में बात करना, यहां की समस्याओं को बिहार की नज़र से देखना और समाधान भी उसी दृष्टिकोण से पेश करना। अगर, कांग्रेस यह समझ पाए, तो शायद यह चुनाव केवल एक और हार-जीत की कहानी नहीं, बल्कि उसकी राजनीतिक पुनर्जीवन गाथा बन सकता है।

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