विशेष संपादकीय
चुनावी उफान में फिर वही पुराने नारे, वही वादे और वही तंज की गूंज
देवानंद सिंह
बिहार की राजनीति एक बार फिर चुनावी उफान पर है। हवा में फिर वही पुराने नारे, वही वादे और वही तंज गूंज रहे हैं, बस चेहरे और मंच बदल गए हैं। दरभंगा से लेकर मुजफ्फरपुर तक, नेताओं की ज़ुबान पर इस बार विकास से ज़्यादा विपक्ष की काट और वोट की बिसात का शोर है। बुधवार को बिहार में चुनावी महासंग्राम की तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो गई, एक ओर भाजपा और एनडीए का डबल इंजन, तो दूसरी ओर महागठबंधन का बदलाव का वादा।
दरभंगा की चुनावी सभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में विपक्ष पर हमला बोला। उन्होंने महागठबंधन को ठगबंधन बताया और लालू प्रसाद यादव व सोनिया गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि लालू अपने बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री और सोनिया अपने बेटे राहुल को प्रधानमंत्री बनाना चाहती हैं, लेकिन दोनों पद खाली नहीं हैं। अमित शाह की यह टिप्पणी एक तीर से दो निशाने साधने जैसी थी, वंशवाद पर हमला और एनडीए में मुख्यमंत्री चेहरे की अनौपचारिक घोषणा। शाह ने साफ़ किया कि नीतीश कुमार ही एनडीए के नेतृत्व में बिहार की बागडोर संभालेंगे, जिससे सियासी अटकलों पर विराम लग गया।
शाह की रैली में मिथिला के प्रतीकों और भावनाओं का गहरा ताना-बाना था। उन्होंने मैथिली भाषा को आधिकारिक दर्जा देने का श्रेय भाजपा सरकार को देते हुए कहा कि संविधान को भी मैथिली में उपलब्ध कराया गया है। साथ ही मिथिला के पुनौराधाम में माता सीता के मंदिर निर्माण और राम सर्किट के विस्तार की बात कर उन्होंने धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव का संदेश दिया। शाह ने बिहार में एनडीए सरकार की उपलब्धियों की लंबी सूची गिनाई—8.52 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन, मखाना बोर्ड का गठन, मुफ्त बिजली, पेंशन में वृद्धि, एम्स और मेट्रो जैसी परियोजनाओं की घोषणा, सबकुछ डबल इंजन के विकास मॉडल की गूंज के साथ, लेकिन उनके भाषण का राजनीतिक केंद्र यही था कि राजद-भाजपा की लड़ाई अब विचारधारा की नहीं, चरित्र की है, और यही एनडीए का चुनावी मंत्र बन गया है।
दरभंगा के बाद बिहार की धरती पर योगी आदित्यनाथ का आगमन एक तरह से भाजपा के हिंदुत्व अभियान की पुनर्पुष्टि थी। उन्होंने भोजपुरिया में शुरुआत कर जनता से सीधा संवाद जोड़ा और कहा, बिहार की धरती वीरता और स्वाभिमान की प्रतीक रही है। बारिश के बीच भीड़ को देखकर उन्होंने इसे पुष्पवर्षा बताया। योगी ने 15 साल पुराने लालू-राबड़ी राज की याद दिलाकर भय, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के उस दौर को फिर जनता के ज़ेहन में ताज़ा किया। उन्होंने कहा, तब बेटियों की सुरक्षा भगवान भरोसे थी और नौजवान बेरोजगार थे।
योगी ने नीतीश कुमार के नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा कि जो काम 50 साल पहले होने चाहिए थे, वे अब हो रहे हैं। उन्होंने सड़कों, मेडिकल कॉलेजों और कनेक्टिविटी के विकास को गिनाया और राम मंदिर का मुद्दा उठाकर चुनावी विमर्श को आस्था की ओर मोड़ दिया। कांग्रेस और राजद मंदिर नहीं बनने देना चाहते थे, लेकिन मोदी जी ने वादा निभाया। इस बयान के साथ योगी ने भाजपा के चुनावी नैरेटिव—राम, राष्ट्र और विकास को फिर केंद्र में ला दिया।
लेकिन बिहार की इस राजनीतिक पटकथा का दूसरा चेहरा राहुल गांधी का मुजफ्फरपुर का भाषण था, जहां उन्होंने एकदम अलग लहज़े में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों पर हमला बोला। राहुल ने कहा कि प्रधानमंत्री केवल वोट की राजनीति करते हैं, विकास की नहीं। अवसर मिले तो मंच पर नाच भी सकते हैं। यह तंज भले तीखा था, लेकिन इसमें राहुल की रणनीति साफ़ झलक रही थी। मोदी की छवि को लोकप्रिय नेता से हटाकर प्रचारक के रूप में प्रस्तुत करना।
राहुल गांधी ने बिहार की जमीनी समस्याओं पर बात करते हुए कहा कि बीस सालों से नीतीश कुमार सत्ता में हैं, लेकिन बिहार की हालत बदतर है—शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सब बेहाल। उन्होंने सवाल किया, बिहार के मेहनती लोग दिल्ली और दुबई को बना सकते हैं, तो अपना बिहार क्यों नहीं? यह बयान महागठबंधन के मूल मुद्दे—बदलाव और रोजगार को फिर से चुनावी केंद्र में लाता है। राहुल ने यह भी कहा कि महागठबंधन जुमले नहीं, जमीनी बदलाव चाहता है, जो कि भाजपा की नीतियों के प्रतिरोध में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश करने की कोशिश है।
तेजस्वी यादव ने भी राहुल की इस लय को आगे बढ़ाते हुए अपने घोषणापत्र में युवाओं और बेरोजगारी पर जोर दिया है। उन्होंने कहा कि अगर, हमारी सरकार बनेगी तो बिहार में दस लाख नौकरियां दी जाएंगी। तेजस्वी के लिए यह चुनाव सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता को सिद्ध करने की परीक्षा भी है। वहीं नीतीश कुमार लगातार यह दोहरा रहे हैं कि बिहार के विकास की यात्रा अधूरी है, उसे पूरा करना है। उनके बयानों में स्थायित्व और प्रशासनिक अनुभव की झलक है, लेकिन थकान और दोहराव का आभास भी।
इस चुनावी परिदृश्य में एक ओर अमित शाह और योगी आदित्यनाथ विकास, धर्म और राष्ट्रवाद का मिश्रण परोस रहे हैं, तो दूसरी ओर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव युवाओं, बेरोजगारी और पलायन के सवालों से भावनात्मक जुड़ाव बना रहे हैं। नीतीश कुमार बीच की राह पर हैं—अनुभव और स्थिरता का चेहरा बनकर।
बिहार की जनता अब इन सबके बीच चुनाव करेगी। वंशवाद और विकास, वादों और अनुभव, धर्म और रोज़गार के बीच। राजनीतिक हमलों और तंजों के शोर के बीच असली सवाल यही है कि क्या बिहार इस बार डबल इंजन को फिर से मौका देगा या बदलाव के इंजन पर भरोसा करेगा। चुनावी मंचों पर जोश और व्यंग्य भले चरम पर हो, लेकिन जनता की उम्मीदें अब भी साधारण हैं। रोज़गार, शिक्षा, और इज़्ज़त की ज़िंदगी। यही वह मुद्दे हैं, जो बिहार के इस शोरगुल में सबसे धीमे हैं, पर सबसे गहरे भी।


