भारत में समाप्ति के कगार पर वाम दल
………………….. कालीचरण सिंह पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री भारतीय जनता पार्टी किसान मोर्च
भारत एक विकासशील देश है इसे हम गरीबी सीमा में रखते हैं यानी गरीब देश है भारत जैसे गरीब देश में कम्युनिस्टों दिन प्रतिदिन राजनीतिक हालत पतली होती जा रही है आखिर हम जिम्मेवार किसे माने…….
1. कम्युनिस्ट नेतृत्व
2.कम्युनिस्ट कार्यकर्ता
3.सर्वहारा आमजन
4 .आर्थिक उदारीकरण
इसमें से एक भी तत्व जिम्मेवार है ,तो नहीं लगता है कि इनका पुनरुद्धार अब संभव है । क्योंकि सभी तत्व मिलाकर ही वामपंथ का सिद्धांत चलाया जा सकता है। जब इसके उत्थान का श्रेय नेतृत्व को जाता है ,तो पतन भी नेतृत्व को जाना चाहिए, अभी कुछ दिन पूर्व सीपीएम के सचिव ने कहा था कि अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया, और भारत मिलकर चीन को घेरना चाहते हैं। जबकि दुनिया के अन्य देशों के वाम दल राजनेता अपनी भूमि को एक एक इंच रक्षा करने में राष्ट्रवादी रहे हैं । इसके उलट भारत के वामपंथी नेता यह समझते हैं ,कि भारत को याने अपनी माटी को गाली देकर ही वामपंथ चलाया जा सकता है । बड़ी विडंबना है कि भारत के वामपंथ के नेताओं का यह समझना चाहिए की वामपंथ देश रहे हैं उनके चरित्र में कभी ऐसा स्वभाव नहीं दिखा है । जब देश आजाद हुआ था तुम पहली बार लोकसभा का 1952 में चुनाव हुआ था पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी को 16 सीटें मिली थी 1962 के चुनाव में 29 सीटें जीत कर वामपंथ एक सशक्त विपक्ष की भूमिका दिखा रहा था ।पार्टी दो भागों में विभाजित हुआ। एक मार्क्सवादी लेलीनवादी कम्युनिस्ट पार्टी दूसरा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी । 1967 के लोकसभा चुनाव में दोनों अलग अलग चुनाव लड़कर 42 सीटें चुनाव जीते तब यह लगने लगा कि यह देश वामपंथ की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हो रहा है । इसके नेता यह समझ नहीं पा रहे थे मैं कहां हूं अगले चुनाव में भी वामपंथी अपनी स्थिति बरकरार रखें 7 तीन राज्यों में वामपंथी की सरकार बनी पश्चिम बंगाल केरल त्रिपुरा यहां तक कि बंगाल और त्रिपुरा में 30 वर्षों तक वामपंथियों की सत्ता रही जब 2004 में लोकसभा का चुनाव हुआ तब वामपंथी 53 लोकसभा क्षेत्र में चुनाव जीते 2014 के लोकसभा चुनाव में वामपंथी केवल 10 सीटें जीती जो प्रारंभ से भी कम याने प्रथम लोकसभा के चुनाव 2014 से यह दिखने लगा वाम दल का पतन प्रारंभ हो गया है इनके नेता गण पतन के लिए अपनी न्यू रख ली है क्योंकि ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल राज्य की सत्ता पूर्व में ही इनसे ले चुकी थी इनकी पतन के प्रमुख कारण मेरी नजरों में
1 . इनकी सोच में या शब्दकोश में सामाजिक न्याय यानी पिछड़ा आरक्षण की कोई अवधारणा नहीं होना
2. भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को अछूत मानना एवं देश के लिए विघटन तत्व का संज्ञा देना, इसे सत्ता से रोकने के लिए किसी भी सीमा तक नीचे जाना। इसलिए कम्युनिस्ट वामपंथियों ने इस रणनीति पर काम किया कि सत्ता में इसे नहीं आने देने के लिए कितना भी भ्रष्ट जैसे लालू प्रसाद यादव एवं मायावती तथा वंशवाद के लिए जाना पहचाना पार्टी कांग्रेस एवं समाजवादी तथा अक्षम राबड़ी देवी जैसे लोगों को समर्थन देना एवं सत्ता में टिकाए रखना।
3. कामकाजी वर्ग, संगठित श्रम, और पूंजीवाद को लेकर उनके सोच पुराने सिद्धांतों और नारों से (जैसे इंकलाब) चिपके रहना।
4. 2007 में सिंगूर नंदीग्राम की घटनाओं ने साम्यवादी दलों के सत्ता अवसान की नीव रख दी।
5. भारत में इस्लामिक चरमपंथी को कोई मुद्दा नहीं मानना तथा हिंदू बहुसंख्यक उनकी आंखों में चुभना
6. केरल के सबरीमाला मामलों में हिंदू मान्यताओं पर प्रहार के लिए लोगों को उकसाना
7. गरीबों के हित में केंद्र सरकार याने मोदी सरकार कि सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन को इनकार करना जैसे मुद्रा योजना, जन धन योजना, उज्जवला योजना, शौचालय योजना। इन योजनाओं सीधा असर समाज के अंतिम सीढ़ी पर बैठे लोगों पर दिख रहा है फिर भी इससे इनकार करना और उल्टी केंद्र सरकार पर आरोप लगाना यह पूंजी पतियों की सरकार है इससे भारत में गरीबी रेखा में जीने वाले लोग का भड़कना।
मेरी नजरों में उपरोक्त सभी कारण वामपंथियों को सत्ता से बाहर का रास्ता देखने को मजबूर किया । जहां तक मेरी समझ है , जहां गरीबी है वहां वामपंथियों के प्रसार की गुंजाइश अधिक रहती है , इसके बावजूद वामपंथी मुरझा गए इसके लिए इनके रणनीतिक कार जो कार्यनीति और रणनीति बनाते हैं जिम्मेवार हैं।
मेरी राय में अगर वामपंथी राजनीति के क्षेत्र में प्रासंगिक बनी रहना चाहते हैं ,तो उन्हें अपने सोच एवं कार्यनीति में परिवर्तन लाना पड़ेगा ।इसके लिए उन्हें गरीब पिछड़े इलाके मैं जाकर केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाओं का आकलन करना एवं गरीबों के जीवन स्तर में पिछले 5 वर्षों का लेखा-जोखा रखकर आकलन करना जिससे उन्हें कार्य करने की जनहित में समझ होगी ताकि वे अपने कार्यनीति में संशोधित कर प्रासंगिक बने रह सकते हैं।
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