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    मेहमान का पन्ना

    बहुत धीरे धीरे बिछ रही है बिसात

    Devanand SinghBy Devanand SinghMarch 25, 2019No Comments7 Mins Read
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    पुण्य प्रसून बाजपेयी

    मोदी की साख । राहुल का विस्तार । अमित शाह की चाणक्य नीति । प्रियंका का जादुई स्पर्श । अखिलेश और आयावती के आस्तितव का सवाल । तेजस्वी कीअग्निपरीक्षा । ममता के तेवर । पटनायक और स्टालिन की लगेसी । और लोकतंत्र पर जनता का भरोसा या उम्मीद । 2019 की ये ऐसी तस्वीर है जिसमें राजनीतिक दलो नाम गायब है । दूसरी कतार के नेताओ की चेहरो का महत्व गायब है । या कहे चंद चेहरो में ही लोकतंत्र का महापर्व कुछ इस तरह घुल चुका है जहा देश के सामाजिक – आर्थिक हालात भी उस राजनीति पर जा
    टिके है जिसके अपने सरोकार अपने ही नेताओ से गायब है । और इस कतार में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है संगठन की तादाद। हर बूथ तक पहुंचने के लिये पूंजी की पोटली । तकनीकी माध्यमो के उपयोग से वोटरो की
    भावनाओ से जुडने का प्रयास । तो जरा कल्पना किजिये सात चरणो में देश के 90 करोड वोटरो तक कौन पहुंच
    सकता है । यानी 543 सीटो पर किसकी पहुंच होगी जो 272के जादुई आंकडो को छू सकने के सपने को पा सके । इसमें सबसे बडी भूमिका आरएसएस की क्यो होगी इसे जानने से पहले जरा समझ लिजिये कि जो चेहरे मैदान में है या जिन चेहरो के भरोसे जीत के सपने संजोय जा रहे है उनकी ताकत है क्या या कितनी ताकत है उनमें मोदी के पास चुनावी इन्फ्रस्ट्रक्चर है और जनता से जुडने वाले सीधे संवाद के तरीके है । राहुल के पास मोदी पर हमले का बेबाकपन भी है और मोदी से टूटे उम्मीद का पिटारा है । अखिलेश-मायावती के पास गठबंधन की ताकत है , तो ममता के पास बंगाल के समीकरण है यानी चाहे अनचाहे चुनाव को राज्यो को खाके में बांटकर देखेगें तो हो सकता है कि कही मोदी बनाम क्षत्रप नजर आये या फिर क्षत्रपो की ताकत को समेटे काग्रेस कागणित नजर आये या फिर कही बीजेपी और काग्रेस की सीधी टक्कर नजर
    आये । लेकिन 2019 का चुनाव इतना सरल है ही नहीं कि हर प्रांत में चुनावी
    प्लेयर खेलते हुये नजर आ जाये । या फिर विकास का ककहरा या जातिय समीकरण
    का मिजाज विकास शब्द को ही हडप लें । दरअसल जिस स्थिति में देश आ खडा हुआ
    हुआ है उसमें तीन तरीके हावी हो चले है ।पहला, प्रचार प्रसार के जरीये हकीकत को पलट देना । दूसरा, किसान व ग्रामिण भारत का मुखौटा लिये कारपोरेट के हाथो देश को सौप देना । तीसरा, कबिलाई राजनीति तले जातिय समीकरण में चुनावी जीत खोजना लेकिन इस बिसात पर पहली बार लकीरे इतनी मोटी खिची गई है कि दलित वोट बैक को ये एहसास है कि उसके वोट 2019 की सत्ता को बनाने या बिगाडने का खेल खेल सकते है तो वह अपने ही नेताओ को भी परखने को तैयार है । मसलन यूपी में मायावती कही जीत के बाद बीजेपी के साथ तो नहीं चली जायेगी तो भीम आर्मी के चन्द्रशेखर सीधे मोदी को चुनौती देकर मायावती के प्रति शक पैदा हुये दलितो को लुभा रहा है । तो दूसरी तरफ देश के चुनावी इतिहास में पहली बार सत्ताधारी बीजेपी कोमुस्लिम वोट बैक की कोई जरुरत नहीं है इस एहसास को सबका साथ सबका विकास के बावजूद खुल कर उभरा गया । यानी मुस्लिम वोट उसी का साथ खडा होगा जो बीजेपी उम्मीदवार को हरायेगा । ये हालात कैसे अब गये इसके लिये बीजेपी के क भी मुस्लिम सांसद का ना होना या एक भी मुस्लिम को उम्मीदवार ना बनाने के हालात नहीं है बल्कि मुस्लिम चेहरा समेटे शहनवाज हुसैन तक के लिये एक सीट भी ना निकाल पाने की सियासी
    जुगत भी है । और यही से शुरु होता है संघ और मोदी का वह सियासी काकटेल जो 2019 के चुनाव में कितना मारक होगा ये कह सकना आसान नहीं है । क्योकि एक तरफ मुद्दो का पहाड है तो दूसरी तरफ संघ की अनोखी सामाजिक पहुंच है ।

    मोदी के सामने मुश्किल खूब है तो दूसरी तरफ सरसंघचालक मोहन भागवत की भी परिक्षा है । मोदी को एहसास है 2014 के दिखाये सपने अगर 2019 में पूरे हो नहीं पाये है तो फिर हवा उल्टी जरुर बहेगी और मोहन भागवत को भी एहसास है कि प्रचारक के बनने के बाद भी संघ के तमाम एंजेडा अगर मटियामेट हुये है तो फिर उनके पास दुबारा मोदी के लिये खडे होने के अलावे कोई विकल्प भी नहीं है । यानी 2019 के चुनाव में मोदी न कोई अलख नहीं जगायेगें न अपने उपर लगते आरोपो का जवाब देगें । यानी राफेल हो । बेरोजगारी हो । किसान का संकट हो । व्यापारियो की मुस्किल हो । मंहगाई की मार हो । घटता उत्पादन हो । शिक्षा-हेल्थ सर्विस का संकट हो । जवाब मोदी देगें नहीं । क्योकि चुनाव पांच साल के लिये मोदी ने लडा नहीं है बल्कि काग्रेस के वैचारिक जमीन कोखत्म कर संघ की जमीन को स्थापित करने का ही ये संघर्ष है और ये एहसास 2019 में संघ परिवार को भी करा दिया गया है या फिर उसे हो चला है कि हिन्दु राष्ट्र का जो भी रास्ता उसने देखा है वह काग्रेस को खत्म कर ही बन सकता है । और इसके लिये मोदी की चुनावी जीत जरुरी है । यानी सवाल तीन है । पहला , 2019 में मोदी-भागवत एक ही रास्ते पर है । यानी काग्रेस अगर संघ परिवार में मोदी को लेकर कोई भ्रम देख रही है तो ये काग्रेस का भर्म है । दूसरा , मोदी के अलाव संघ किसी दूसरे को नेतृत्व की सोच भी नहीं सकता है । यानी काग्रेस या विपक्ष अगर गडकरी या त्रिशकु जनादेश के वक्त मोदी माइनस बीजेपी को देख रहा है तो ये उसकी भूल होगी ।क्योकि उस हालात में भी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार मोदी के पंसदीदा होगें । जो आज की तारिख में महाराष्ट्र के सीएम देवेन्द्र फडनवीस हो सकते है । तीसरा , संघ के कैडर को इसका एहसास है कि मोदी की सत्ता नहीं रही तो फिर उनके बुरे दिन शुरु हो जायेगे यानी वह सवाल दूर की गोटी है कि मोदी को लकर संघ कैडर में गाय से लेकर मंदिर तक के जो सवाल पाच बरस तक कुलाचे मारते रहे कि वह चुनाव में मोदी के खिलाफ जा सकते है । असल में संघ के सामने भी चुनावी जीत हार आस्तितव के संकट के तौर पर है इसका एहसास मोदी ने बाखूबी संघ को अपने संकट से जोड कर करा दिया है ।ऐसे में संघ ने पहली बार दो स्तर पर चुनावी प्रचार की रुपरेखा तय की है । जिससे कमोवेश देश की हर सीट तक उसकी पहुंच हो सके । और पहली बार स्वयसेवक किसी राजनतिक कार्यकत्ता की तर्ज पर चुनावी क्षेत्र में ना सिर्फ नजर आयेगे बल्कि सात चरण में सात जगहो पर नजर भी आयेगें । तरीके दो है , पहला, राज्यवार एक लाख स्वयसेवको का समूह सीट दर सीट घुमेगा । दूसरा , स्वयसेवक मोदी के बारे में कम काग्रेस के बारे में ज्यादा बात करेगें । यानी 2019 की राजनीति को ही संघ अपने हिसाब से गढने की तैयारी में जुट चुकी है जहा मोदी के पांच बरस र कोई चर्चा नहं होगी लेकिन काग्रेस के होने से क्या क्या मुश्किल देश के सामने आती रही है उसे परोसा जायेगा । और ये प्रचार कितना तीखा हो सकता है ये इससे भी समझा जा सका है एक तरफसाक्षी महाराज का बयान है तो दूसरीतरफ इन्द्रेश कुमार का । साक्षी कहत है मोदी जीते तो फिर ्गला चुनाव होगा ही नहीं त इन्द्रेश कुमार कहते ह कि मोदी बने रहे तो चंद बरस में लाहौर , कराची , रावलपिंडी में भी भरतीय जमीन खरीद सकते है । यानी स्वयसेवको में ये भ्रम ना रहे कि असंभव किया नहीं जा सका । तो मोदी को लारजर दैन लाइफ के तौर पर संघ के भीतर भी रखा जा रहा है जिसमें हिन्दुस्ता के लोकतंत्र का मतलब ही मोदी है तो दसरी तरफ अंखड भारत का सपना दिख कर हर दिन शाखा लगाने वाले स्वयसेवक मान लें कि पाकिसातन भी मोदी काल में भारत का हिस्सा होगा । यानी बिना समझ के सडक की भाषा या अवैज्ञानिक तरीके से संवैधानिक सत्ता को भी सडक के सामानातांतर ला दिया जाये तो सोच का पूरा पैराडोक्स ही बदल जायेगा ।
    जारी…

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