कोरे आश्वासनों-घोषणाओं से देश नहीं बनता
-ललित गर्ग-
कोई भी लोकनायक यदि मूल्य स्थापित करता है, कोई पात्रता पैदा करता है, कोई सृजन करता है, तो वह देश का गौरव बढ़ाता है, इसके लिये वह गीतों मंे गाया जाता है, लेकिन कोई भी अपने राजनीतिक लाभ के लिये लोक-लुभावन आश्वासनों से देश की अनपढ़ एवं भौलीभाली जनता को ठगने या लुभाने का प्रयत्न करता है तो इससे लोकतंत्र खतरे में आ जाता हैं। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने शासनकाल में गरीबों को लाभ पहुंचाने के लिये कई कारगर उपाय किये। उन्हीं उपायों एवं योजनाओं में एक प्रमुख योजना थी गरीब किसानों को छह हजार रुपये सालाना देने की योजना। अब राहुल गांधी ने वोट बैंक को प्रभावित करने के लिये घोषणा की है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वह देश के सबसे गरीब पांच करोड़ परिवारों को 72,000 रुपये सालाना देगी। किस तरह राजनीति आर्थिक नियम-कानूनों एवं राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर चलती है, इसका यह एक त्रासद उदाहरण है। देश केवल ”लुभावने आश्वासनों या घोषणाओं“ से ही नहीं बनेगा, उसके लिए चाहिए एक सादा, साफ, पारदर्शी, व्यावहारिक और सच्चा राष्ट्रीय चरित्र, जो जन-प्रतिनिधियों को सही प्रतिनिधि बना सके। तभी हम उस कहावत को बदल सकेंगे ”इन डेमोक्रेसी गुड पीपुल आर गवरनेड बाई बैड पीपुल“ कि लोकतंत्र में अच्छे आदमियों पर बुरे आदमी राज्य करते हैं।
कांग्रेस जब मोदी पर हमला करती है, या उनकी योजनाओं को कमतर करने के लिये जिस तरह की योजनाएं लाती हैं तो ये भूल जाती है कि उसने अपने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साठ साल के शासन में ये योजनाएं क्यों नहीं लागू की? गरीबों का, किसानों का, बेरोजगारों का इतना ख्याल अब ही क्यों आ रहा है? सचाई तो यही है कि कांग्रेस के शासनकाल में ही गरीब अधिक गरीब हुआ और अमीर अधिक अमीर हुआ। जबकि उसने मोटे-मोटे जुमले उछालने एवं जमीनी स्तर पर आम आदमी का जीवन स्तर सुधारने का कोई ठोस काम नहीं किया। विपक्षी दल एवं कांग्रेस मोदी सरकार को घेरने के लिये कुछ चुनिंदा विषयों जैसे गरीबी, किसानों की बदहाली, बेरोजगारी को बार-बार चुनावी मुद्दा बनाती हैं। जबकि सचाई यही है कि इन क्षेत्रों को बेहतर बनाने के लिये मोदी सरकार ने जितना काम किया है, उतना पिछले 70 साल में किसी सरकार ने नहीं किया है। यही कारण है कि राहुल गांधी गरीब किसानों को छह हजार रुपये सालाना देने की मोदी सरकार की योजना के जवाब में अपनी यह योजना लाए हैं। उन्होंने जिस तरह यह हिसाब दिया कि इससे करीब 25 करोड़ लोग लाभान्वित होंगे उससे यही पता चलता है कि वह यह मान कर चल रहे हैैं कि गरीब परिवारों की औसतन सदस्य संख्या पांच है। भले ही कांग्रेस अध्यक्ष ने न्यूनतम आय योजना को दुनिया की ऐतिहासिक योजना करार दिया हो, लेकिन देश यह जानना चाहेगा कि आखिर वह इस आंकड़े तक कैसे पहुंचे कि देश में सबसे गरीब परिवारों की संख्या पांच करोड़ है? एक सवाल यह भी है कि यह कैसे जाना जाएगा कि किसी गरीब परिवार के मुखिया की मौजूदा मासिक आय कितनी है, क्योंकि राहुल गांधी के अनुसार, गरीब परिवार की आय 12 हजार रुपये महीने से जितनी कम होगी उतनी ही राशि उसे और दी जाएगी। समझना कठिन है कि कांग्रेस किस तरह एक ओर गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये भी देना चाहती हैै और दूसरी ओर ऐसे परिवारों की हर महीने की आय 12 हजार रुपये भी सुनिश्चित करना चाहती है? वर्तमान चुनावी परिदृश्यों को देखते हुए कांग्रेस का केन्द्र में सरकार बनाना असंभव है, फिर कोई अजूबा हो जाये और कांग्रेस सरकार बना ले तो बड़ा प्रश्न है कि आखिर पांच करोड़ गरीब परिवारों को सालाना 72 हजार रुपये देने के लिए प्रति वर्ष तीन लाख साठ हजार करोड़ रुपये की भारी भरकम धनराशि कहां से जुटेगी? जब तक यह स्पष्टता सामने नहीं आती तब तक कांग्रेस अध्यक्ष की नई-अनोखी तथाकथित घोषणा पर केवल परेशान ही हुआ जा सकता है। गरीबी हटाने का वादा करना अच्छी बात है, लेकिन उसके नाम पर किसी भी दल को देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क करने की आजादी कैसी दी जा सकती। देश को अंधेरे गर्त में धकेलने की इन कुचेष्टाओं को आम जनता को समझना होगा, यह ऐसा जहर है जो इस प्रकार राष्ट्रीय जीवन में गरीबी समाप्त नहीं करतीं पर गरीबों को ही समाप्त कर देती हैं।
हमारे राष्ट्रीय चरित्र की भी यही त्रासद स्थिति है। वह कई प्रकार के जहरीले दबावों से प्रभावित है। अगर राष्ट्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठाता है तो लगता है यह कोई विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुसाया जा रहा है। जिस मर्यादा, सद्चरित्र, पारदर्शिता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही है, सामाजिक व्यवस्था बनी रही है, जीवन व्यवहार चलता रहा है वे लुप्त हो गये। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था, हमने उसको उतार कर खूंटी पर टांग दिया है। मानो वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब काम की नहीं रही।
राष्ट्रीय चरित्र न तो आयात होता है और न निर्यात और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। इसे देश, काल, स्थिति व राष्ट्रीय हित को देखकर बनाया जाता है, जिसमें हमारी संस्कृति एवं सभ्यता शुद्ध सांस ले सके। आवश्यकता है उन मूल्यों को वापस लौटा लाने की। आवश्यकता है मनुष्य को प्रामाणिक बनाने की। आवश्यकता है राजनीतिक मूल्यों की। आवश्यकता है राष्ट्रीय हित को सर्वाेपरि रखकर चलने की, तभी देश के चरित्र में नैतिकता आ सकेगी, तभी गरीबी दूर हो सकेगी।
पिछले कई वर्षों से राजनैतिक एवं सामाजिक स्वार्थों ने हमारे इतिहास एवं संस्कृति को एक विपरीत दिशा में मोड़ दिया है और प्रबुद्ध वर्ग भी दिशाहीन मोड़ देख रहा है। अपनी मूल संस्कृति को रौंदकर किसी भी अपसंस्कृति को बड़ा नहीं किया जा सकता। जीवन को समाप्त करना हिंसा है, तो जीवन मूल्यों को समाप्त करना भी हिंसा है। महापुरुषों ने तो किसी के दिल को दुखाना भी हिंसा माना है। लेकिन राजनेता तो लोकतंत्र के महाकुंभ के प्रसंग को ही अपनी ठगी एवं स्वार्थों के चलते आम जनता के घावों को भरने की बजाय इन्हें हरा करने की ठान कर हिंसक बना दिया है। नोेट छापकर गरीबों को बांटने की कोई योजना सुनने में आकर्षक लग सकती है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस तरह की लोक-लुभावन योजनाओं से गरीबी दूर होने के बजाय और बढ़ती ही है। इतना ही नहीं, ऐसी योजनाओं पर अमल करने वाले देश आर्थिक रूप से बर्बाद भी होते हैैं। कितना अच्छा होता इन चुनावों में राजनीतिक दल गरीबी दूर करने के लिये कोई ठोस एजेंडा प्रस्तुत करते, जैसे उन्हें काम देने, देश के निर्माण में उनकी शक्ति को नियोजित करने, नये उद्योग स्थापित करने, रोजगार बढ़ाने, किसानों को उन्नत खेती के उपकरण देने, बेरोजगार युवाओं के लिये कैरियर के उन्नत अवसरों को निर्मित करने की बात की जाती। आज करोड़ों के लिए रहने को घर नहीं, स्कूलों में जगह नहीं, अस्पतालों में दवा नहीं, थाने में सुनवाई नहीं, डिपो में गेहूं, चावल और चीनी नहीं, महिलाओं की अस्मिता सुरक्षित नहीं, तब भला राहुल गांधी जैसे राजनीति पहरुआ, जिनकी 2004 में घोषित 55 लाख की जमीन-जायदाद 2014 में नौ करोड़ की संपदा हो जाती है, भला इन तथाकथित राजकुमारों की फौज अपनी घोषणाओं से कौनसा ”वाद“ लाएगी? आज अशिक्षितों, बेरोजगारों और भूखों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। जिनके हाथों में स्लेट और किताबें होनी चाहिएँ, वे बर्तन मल रहे हैं। नारी को नंगा किया जा रहा है। केवल गांवों मंे ही नहीं, शहरों में, विज्ञापनों में, टी.वी. में, गीतों में।
जन प्रतिनिधि लोकतंत्र के पहरुआ होते हैं और पहरुआ को कैसा होना चाहिए, यह एक बच्चा भी जानता है कि ”अगर पहरुआ जागता है तो सब निश्चिंत होकर सो सकते हैं।“ इतना बड़ा राष्ट्र केवल कानून के सहारे नहीं चलता और तथाकथित आश्वासनों एवं घोषणाओं से भी नहीं। उसके पीछे चलाने वालों का चरित्र बल होना चाहिए। इन नये राजकुमारों की बढ़ती सुविधाओं एवं सम्पदा को गरीब राष्ट्र बर्दाश्त भी कर लेगा पर अपने होने का भान तो ये कराए। जो वायदे येे अपने मतदाताओं से करते हैं, जो शपथ उन्होंने भगवान या अपनी आत्मा की साक्षी से ली है, जो प्रतिबद्धता उनकी राष्ट्र के विधान के प्रति है, उसे तो पूरा करें। कोरे घोषणाओं एवं आश्वासनों से देश नहीं बनता
कोरे आश्वासनों-घोषणाओं से देश नहीं बनता
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