अटल पर जनता सरकार के अनुभव का ही प्रभाव पड़ा कि उन्होंने 1980 में बनी नई पार्टी बीजेपी के सिद्धांतों में गांधीवादी समाजवाद और सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता को शामिल करने पर जोर दिया. हालांकि जिस वक्त अपने पुराने अवतार, जनसंघ के विपरीत यह अधिक उदारवादी रुख अख्तियार कर रही थी, उस वक्त सत्ताधारी कांग्रेस तेजी से हिंदू पार्टी बनती जा रही थी!इंदिरा गांधी के दूसरे कार्यकाल (1980-84) के दौरान असम, पंजाब और कश्मीर समस्या ने सिर उठाना शुरू कर दिया. इंदिरा के तीखे बयानों (अल्पसंख्यक पसंद नहीं करते थे) और साफ तौर पर दिखने वाले, जबरदस्त तरीके से मंदिरों और धार्मिक गुरुओं के पास उनके जाने के प्रचार ने एक हिंदू नेता की तस्वीर पेश की.इस प्रकार, भूमिकाएं बदल गई थीं, अटल के नेतृत्ववाली बीजेपी उदारवादी रुख ले रही थी, जबकि इंदिरा के नेतृत्ववाली कांग्रेस राजनैतिक मुद्दों पर दक्षिणपंथी रास्ता अपना रही थी.अटल को लगा कि बीजेपी से जनसंघ का भूत उतरा नहीं है और उसे दूर भगाना होगा, चाहे जनता पार्टी के घोषणा-पत्र को अपना बताकर या फिर उदारवादी और नाप-तौलकर दिए गए बयानों के जरिए.अटल अयोध्या आंदोलन को लेकर सहज नहीं थे और निजी बातचीत में वे अपना विरोध व्यक्त कर देते थे, लेकिन सार्वजनिक तौर पर पार्टी के साथ खड़े दिखते थे. उनके विरोध करने के तरीके अनोखे थे. जब यह कहा गया कि वे लोकसभा में पार्टी के नेता बन जाएं, ताकि आडवाणी से उनका बोझ उतर सके (क्योंकि वे अयोध्या आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे), तब अटल ने इनकार कर दिया.संभवतः उन्हें इसका आभास हो चुका था कि 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में क्या होने वाला है और इस कारण वे उस पवित्र नगरी से दूर ही रहे. जब विवादित ढांचे को गिराया गया, तब उन्होंने कहा था कि वह उनके जीवन का सबसे दुःखद दिन था.उन्होंने आगे कहा, मैं उन कार सेवकों से सामने आने को कहने के लिए तैयार हूं, जिनकी संख्या मुट्ठी भर थी और वे स्वीकार करेंगे कि उन्होंने उस ढांचे को गिराया और सजा भुगत लेंगे.मैं यह भी कहना चाहता हूं कि ऐसे कार सेवकों की भी बड़ी संख्या थी, जो विध्वंस में शामिल नहीं थे. यदि चुपचाप विध्वंस कर देने का इरादा होता तो इस योजना के लिए कार सेवा की आवश्यकता नहीं पड़ती. फिर भी, जो कुछ वहां हुआ, उसका हमें अफसोस है.गोधरा के दंगों और गुजरात राज्य प्रशासन द्वारा जिस प्रकार उससे निपटा गया, उसके बाद अटल के मुश्किलों भरे दिन शुरू हो गए. अटल सरकार पर बीजेपी शासनवाले गुजरात सरकार में परिवर्तन के लिए जिस प्रकार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जा रहा था, उससे अटल को भारी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा.उन्होंने मुख्यमंत्री को हटाने का फैसला कर लिया; लेकिन आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी के कट्टरपंथियों के दबाव के चलते यह संभव नहीं हो सका. अटल को पीछे हटना पड़ा. हालांकि अटल ने अयोध्या मामले में बेहतरीन संतुलन बनाने में कामयाबी हासिल की. यह एक तरफ संघ परिवार और दूसरी तरफ एनडीए के घटक दलों के दबाव के बावजूद संभव हो सका. उन्होंने संसद में कहा, मैंने विवादित ढांचे के स्थल पर कभी राम मंदिर बनाने की मांग नहीं की.अयोध्या आंदोलन का चरम बिंदु तक पहुंचना आडवाणी के लिए गौरव का पल था. ऐसा लग रहा था मानो वे अभेद्य स्थिति में थे और किनारे किए गए अटल काफी पीछे छूट चुके थे. भगवा पार्टी में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी, जिन्हें लगता था कि नरसिम्हा राव की सरकार का गिरना और आडवाणी के नेतृत्व वाली सरकार का सत्ता में आना बस वक्त की ही बात थी.आडवाणीजी को एहसास हो गया था कि उनके लिए बने रहना संभव नहीं है और किसी के कुछ कहने से पहले ही उन्होंने जिम्मेदारी अटलजी को सौंप दी, यह कहना है जगदीश शेट्टीगर का, जो उस वक्त पार्टी के आर्थिक सेल के संयोजक और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य थे. इस कारण अयोध्या आंदोलन (भले ही इसके कारण अटल को किनारे किया गया) आखिरकार उनके हक में रहा और उन्हें फिर से मुख्य भूमिका में ले आया.भारत को परमाणु-हथियारों से लैस देशों के बीच ला खड़ा करने वाले परमाणु परीक्षणों के दो महीने बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इंडिया टुडे को परमाणु परीक्षण पर एक इंटरव्यू दिया. चुनावों में लोगों से किए वादे को निभाने के लिए हमने सिलसिलेवार परमाणु परीक्षण किए.यह शासन के राष्ट्रीय एजेंडा का एक हिस्सा है. मैं पिछले चार दशकों से भारत को परमाणु शक्ति से संपन्न देश बनाने की वकालत करता रहा हूं. मेरी पार्टी यह मांग लगातार और पूरी ताकत से करती रही है. अब चूंकि हम सरकार में हैं, इसलिए लोग लंबे समय से जताई जा रही प्रतिबद्धता को कार्रवाई में बदलते देखना चाहते हैं. हमने उन्हें दिखा दिया है कि हम जो कहते हैं, वह करते हैं.
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